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न तख़्त-ओ-ताज में ने लश्कर-ओ-सिपाह में है - अल्लामा इक़बाल कविता - Darsaal

न तख़्त-ओ-ताज में ने लश्कर-ओ-सिपाह में है

न तख़्त-ओ-ताज में ने लश्कर-ओ-सिपाह में है

जो बात मर्द-ए-क़लंदर की बारगाह में है

सनम-कदा है जहाँ और मर्द-ए-हक़ है ख़लील

ये नुक्ता वो है कि पोशीदा ला-इलाह में है

वही जहाँ है तिरा जिस को तू करे पैदा

ये संग-ओ-ख़िश्त नहीं जो तिरी निगाह में है

मह ओ सितारा से आगे मक़ाम है जिस का

वो मुश्त-ए-ख़ाक अभी आवारगान-ए-राह में है

ख़बर मिली है ख़ुदायान-ए-बहर-ओ-बर से मुझे

फ़रंग रहगुज़र-ए-सैल-ए-बे-पनाह में है

तलाश उस की फ़ज़ाओं में कर नसीब अपना

जहान-ए-ताज़ा मिरी आह-ए-सुब्ह-गाह में है

मिरे कदू को ग़नीमत समझ कि बादा-ए-नाब

न मदरसे में है बाक़ी न ख़ानक़ाह में है

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