अता अस्लाफ़ का जज़्ब-ए-दरूँ कर
शरीक-ए-ओ-ए-ज़ुमरा-ए-ला-यहज़नूँ
ख़िरद की गुत्थियाँ सुलझा चुका मैं
मिरे मौला मुझे साहिब-ए-जुनूँ कर
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जम्हूरियत इक तर्ज़-ए-हुकूमत है कि जिस में
कभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में
बे-ख़तर कूद पड़ा आतिश-ए-नमरूद में इश्क़
मिटा दिया मिरे साक़ी ने आलम-ए-मन-ओ-तू
कुशादा दस्त-ए-करम जब वो बे-नियाज़ करे
ने मोहरा बाक़ी ने मोहरा-बाज़ी
मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
उरूज-ए-आदम-ए-ख़ाकी से अंजुम सहमे जाते हैं
तिरा तन रूह से ना-आश्ना है
ये काएनात अभी ना-तमाम है शायद
पुराने हैं ये सितारे फ़लक भी फ़र्सूदा
आलम-ए-आब-ओ-ख़ाक-ओ-बाद सिर्र-ए-अयाँ है तू कि मैं