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मेरी नवा-ए-शौक़ से शोर हरीम-ए-ज़ात में - अल्लामा इक़बाल कविता - Darsaal

मेरी नवा-ए-शौक़ से शोर हरीम-ए-ज़ात में

मेरी नवा-ए-शौक़ से शोर हरीम-ए-ज़ात में

ग़ुल्ग़ुला-हा-ए-अल-अमाँ बुत-कदा-ए-सिफ़ात में

हूर ओ फ़रिश्ता हैं असीर मेरे तख़य्युलात में

मेरी निगाह से ख़लल तेरी तजल्लियात में

गरचे है मेरी जुस्तुजू दैर ओ हरम की नक़्शा-बंद

मेरी फ़ुग़ाँ से रुस्तख़ेज़ काबा ओ सोमनात में

गाह मिरी निगाह-ए-तेज़ चीर गई दिल-ए-वजूद

गाह उलझ के रह गई मेरे तवहहुमात में

तू ने ये क्या ग़ज़ब किया मुझ को भी फ़ाश कर दिया

मैं ही तो एक राज़ था सीना-ए-काएनात में

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