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ख़ुदी की शोख़ी ओ तुंदी में किब्र-ओ-नाज़ नहीं - अल्लामा इक़बाल कविता - Darsaal

ख़ुदी की शोख़ी ओ तुंदी में किब्र-ओ-नाज़ नहीं

ख़ुदी की शोख़ी ओ तुंदी में किब्र-ओ-नाज़ नहीं

जो नाज़ हो भी तो बे-लज़्ज़त-ए-नियाज़ नहीं

निगाह-ए-इश्क़ दिल-ए-ज़िंदा की तलाश में है

शिकार-ए-मुर्दा सज़ा-वार-ए-शाहबाज़ नहीं

मिरी नवा में नहीं है अदा-ए-महबूबी

कि बाँग-ए-सूर-ए-सराफ़ील दिल-नवाज़ नहीं

सवाल-ए-मय न करूँ साक़ी-ए-फ़रंग से मैं

कि ये तरीक़ा-ए-रिंदान-ए-पाक-बाज़ नहीं

हुई न आम जहाँ में कभी हुकूमत-ए-इश्क़

सबब ये है कि मोहब्बत ज़माना-साज़ नहीं

इक इज़्तिराब मुसलसल ग़याब हो कि हुज़ूर

मैं ख़ुद कहूँ तो मिरी दास्ताँ दराज़ नहीं

अगर हो ज़ौक़ तो ख़ल्वत में पढ़ ज़ुबूर-ए-अजम

फ़ुग़ान-ए-नीम-शबी बे-नवा-ए-राज़ नहीं

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