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कमाल-ए-तर्क नहीं आब-ओ-गिल से महजूरी - अल्लामा इक़बाल कविता - Darsaal

कमाल-ए-तर्क नहीं आब-ओ-गिल से महजूरी

कमाल-ए-तर्क नहीं आब-ओ-गिल से महजूरी

कमाल-ए-तर्क है तस्ख़ीर-ए-ख़ाकी ओ नूरी

मैं ऐसे फ़क़्र से ऐ अहल-ए-हल्क़ा बाज़ आया

तुम्हारा फ़क़्र है बे-दौलती ओ रंजूरी

न फ़क़्र के लिए मौज़ूँ न सल्तनत के लिए

वो क़ौम जिस ने गँवाई मता-ए-तैमूरी

सुने न साक़ी-ए-महवश तो और भी अच्छा

अय्यार-ए-गरमी-ए-सोहबत है हर्फ़-ए-माज़ूरी

हकीम ओ आरिफ़ ओ सूफ़ी तमाम मस्त-ए-ज़ुहूर

किसे ख़बर कि तजल्ली है ऐन-ए-मस्तूरी

वो मुल्तफ़ित हों तो कुंज-ए-क़फ़स भी आज़ादी

न हों तो सेहन-ए-चमन भी मक़ाम-ए-मजबूरी

बुरा न मान ज़रा आज़मा के देख इसे

फ़रंग दिल की ख़राबी ख़िरद की मामूरी

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