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हज़ार ख़ौफ़ हो लेकिन ज़बाँ हो दिल की रफ़ीक़ - अल्लामा इक़बाल कविता - Darsaal

हज़ार ख़ौफ़ हो लेकिन ज़बाँ हो दिल की रफ़ीक़

हज़ार ख़ौफ़ हो लेकिन ज़बाँ हो दिल की रफ़ीक़

यही रहा है अज़ल से क़लंदरों का तरीक़

हुजूम क्यूँ है ज़ियादा शराब-ख़ाने में

फ़क़त ये बात कि पीर-ए-मुग़ाँ है मर्द-ए-ख़लीक़

इलाज-ए-ज़ोफ़-ए-यक़ीं इन से हो नहीं सकता

ग़रीब अगरचे हैं 'राज़ी' के नुक्ता-हाए-दक़ीक़

मुरीद-ए-सादा तो रो रो के हो गया ताइब

ख़ुदा करे कि मिले शैख़ को भी ये तौफ़ीक़

उसी तिलिस्म-ए-कुहन में असीर है आदम

बग़ल में उस की हैं अब तक बुतान-ए-अहद-ए-अतीक़

मिरे लिए तो है इक़रार-ए-बिल-लिसाँ भी बहुत

हज़ार शुक्र कि मुल्ला हैं साहिब-ए-तसदीक़

अगर हो इश्क़ तो है कुफ़्र भी मुसलमानी

न हो तो मर्द-ए-मुसलमाँ भी काफ़िर ओ ज़िंदीक़

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