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गेसू-ए-ताबदार को और भी ताबदार कर - अल्लामा इक़बाल कविता - Darsaal

गेसू-ए-ताबदार को और भी ताबदार कर

गेसू-ए-ताबदार को और भी ताबदार कर

होश ओ ख़िरद शिकार कर क़ल्ब ओ नज़र शिकार कर

इश्क़ भी हो हिजाब में हुस्न भी हो हिजाब में

या तो ख़ुद आश्कार हो या मुझे आश्कार कर

तू है मुहीत-ए-बे-कराँ मैं हूँ ज़रा सी आबजू

या मुझे हम-कनार कर या मुझे बे-कनार कर

मैं हूँ सदफ़ तो तेरे हाथ मेरे गुहर की आबरू

मैं हूँ ख़ज़फ़ तो तू मुझे गौहर-ए-शाहवार कर

नग़्मा-ए-नौ-बहार अगर मेरे नसीब में न हो

उस दम-ए-नीम-सोज़ को ताइरक-ए-बहार कर

बाग़-ए-बहिश्त से मुझे हुक्म-ए-सफ़र दिया था क्यूँ

कार-ए-जहाँ दराज़ है अब मिरा इंतिज़ार कर

रोज़-ए-हिसाब जब मिरा पेश हो दफ़्तर-ए-अमल

आप भी शर्मसार हो मुझ को भी शर्मसार कर

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