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गर्म-ए-फ़ुग़ाँ है जरस उठ कि गया क़ाफ़िला - अल्लामा इक़बाल कविता - Darsaal

गर्म-ए-फ़ुग़ाँ है जरस उठ कि गया क़ाफ़िला

गर्म-ए-फ़ुग़ाँ है जरस उठ कि गया क़ाफ़िला

वाए वो रह-रौ कि है मुंतज़़िर-ए-राहिला

तेरी तबीअत है और तेरा ज़माना है और

तेरे मुआफ़िक़ नहीं ख़ानक़ही सिलसिला

दिल हो ग़ुलाम-ए-ख़िरद या कि इमाम-ए-ख़िरद

सालिक-ए-रह होशियार सख़्त है ये मरहला

उस की ख़ुदी है अभी शाम-ओ-सहर में असीर

गर्दिश-ए-दौराँ का है जिस की ज़बाँ पर गिला

तेरे नफ़स से हुई आतिश-ए-गुल तेज़-तर

मुर्ग़-ए-चमन है यही तेरी नवा का सिला

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