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तेज़ी तिरे मिज़्गाँ की ये नश्तर से कहूँगा - अलीमुल्लाह कविता - Darsaal

तेज़ी तिरे मिज़्गाँ की ये नश्तर से कहूँगा

तेज़ी तिरे मिज़्गाँ की ये नश्तर से कहूँगा

अबरू की शिकायत दम-ए-ख़ंजर से कहूँगा

हम-रंग-ए-शम्अ' इश्क़ में तेरे हूँ व-लेकिन

ये सोज़-ए-जिगर आतिश मुजमर से कहूँगा

देखा हूँ मैं जिस रोज़ से तुझ हुस्न का झलका

है दिल में कभी जामा-ए-अनवर से कहूँगा

तंगी जो तिरे पिस्ता-दहन की है सरासर

सर-बस्ता सुख़न गुंचा-ए-जौहर से कहूँगा

सैराब न हूँ तुझ लब-ए-शीरीं से अगर मैं

ये तिश्ना-लबी चश्मा-ए-कौसर से कहूँगा

बूझा है 'अलीम' आज कि है हुस्न का तू गंज

ये ख़ुश-ख़बरी आशिक़-ए-बे-ज़र से कहूँगा

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