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राह में हक़ के अज़ीज़ाँ आप को क़ुर्बां करो - अलीमुल्लाह कविता - Darsaal

राह में हक़ के अज़ीज़ाँ आप को क़ुर्बां करो

राह में हक़ के अज़ीज़ाँ आप को क़ुर्बां करो

या नहीं उस पर तसद्दुक़ अपना जिस्म-ओ-जाँ करो

सालिकाँ कब लग चलोगे रह में हक़ के मोर चल

इश्क़ की तेज़ी को अपने छेड़ कर जौलाँ करो

काँ तलक ख़ातिर रखोगे आरज़ू में तंग कर

ग़ुंचा-दिल बाद-ए-सबा सूँ इश्क़ के ख़ंदाँ करो

अक़्ल-ए-नफ़सानी तुमन में बुर्क़ा-ए-हैवान है

फाड़ कर पर्दा नज़र का आप को इंसाँ करो

ख़ाना-ए-दिल को रखो आबाद हक़ की याद सूँ

इश्क़ की आतिश सूँ तन को जाल कर वीराँ करो

तोड़ कर तन को करो बारीक पर्दे की मिसाल

शम्-ए-नूरानी लगा फ़ानूस-ए-तन ताबाँ करो

देखते रहो रोज़-ओ-शब अँखियाँ सूँ तुम रब का जमाल

नैन की थाली में इस को ज्यूँ दुर-ए-ग़लताँ करो

फेरते रहो दीद का मनका नज़र के तार में

रात दिन अँखियाँ को अपनी इस तरफ़ गर्दां करो

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