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मुर्ग़ ज़ीरक अक़्ल का है इश्क़ का सय्याद शोख़ - अलीमुल्लाह कविता - Darsaal

मुर्ग़ ज़ीरक अक़्ल का है इश्क़ का सय्याद शोख़

मुर्ग़ ज़ीरक अक़्ल का है इश्क़ का सय्याद शोख़

अक़्ल है बिसयार शीरीं इश्क़ का फ़रहाद शोख़

अक़्ल अपने दाम में करता है कुल आलम को क़ैद

बंद और ज़ंजीर सूँ नित इश्क़ है आज़ाद शोख़

अक़्ल बूझा आशिक़ाँ सब वाजिबुत्ताज़ीर हैं

क़ातिल-ए-अक़्ल-ओ-फ़हम है इश्क़ का जल्लाद शोख़

अक़्ल को सब मुल्क में है दाद इंसाफ़-ओ-अदल

क्या निहायत इश्क़ का है बादशह बे-दाद शोख़

फ़हम और फ़िक्रत में अपनी अक़्ल गर फ़ौलाद है

आब करता है गला कर इश्क़ का हद्दाद शोख़

अक़्ल के मीज़ाँ में आया बहर और बर का हिसाब

नहिं मगर आया अदद में इश्क़ का तादाद शोख़

अक़्ल सूँ जाने गुज़र तब आशिक़ाँ पाते हैं वस्ल

ऐ 'अलीमुल्लाह' अजब है इश्क़ का इरशाद शोख़

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