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ला-मकाँ लग आशिक़ाँ के इश्क़ का पर्वाज़ है - अलीमुल्लाह कविता - Darsaal

ला-मकाँ लग आशिक़ाँ के इश्क़ का पर्वाज़ है

ला-मकाँ लग आशिक़ाँ के इश्क़ का पर्वाज़ है

आसमान और अर्श-ओ-कुर्सी उन का पा-अंदाज़ है

इक तफ़क्कुर उन का अफ़ज़ल अज़-ताअत-ए-हफ़्ता-ओ-साल

सब ख़लाइक़ पर उन्हों का इस सबब एज़ाज़ है

आलिमाँ और आबिदाँ की बंदगी सब क़ील-ओ-क़ाल

आशिक़ाँ के दिल में रौशन जो कि मख़्फ़ी राज़ है

मूतू-क़ब्ला-अन-तमूतू हाल है उश्शाक़ का

आलिमाँ के गोश में उस हर्फ़ का आवाज़ है

बुल-हवस को शम्अ से दिल बाँधना मुमकिन नहीं

आशिक़ाँ का इस सबब ज़ाहिद सदा अग़माज़ है

ख़ैर ओ शर सूँ आशिक़ाँ बे-दिल नहीं और बूझते

रंज ओ राहत इश्क़ में माशूक़ का सब नाज़ है

टल गए इस मारके सूँ कई हज़ाराँ ऐ 'अलीम'

जो रहा सो नाम उस का आशिक़-ए-जाँ-बाज़ है

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