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लगा कर इश्क़ का कजरा नयन को - अलीमुल्लाह कविता - Darsaal

लगा कर इश्क़ का कजरा नयन को

लगा कर इश्क़ का कजरा नयन को

दिखाऊँ याँ सेती हुब्बुलवतन को

बज़ाँ ले जाऊँ हर लहज़े में इक बार

कि जब लग रूह सूँ रिश्ता है तन को

रहे आलम में उस का सैर और तैर

न देखे उस के कुइ मस्ताने-पन को

चमन सूँ दिल के आलम को ख़बर नहिं

हमेशा देखते ख़ाकी बदन को

कर आऊँ सैर दिल के बोस्ताँ का

न जावे वो कभी हरगिज़ चमन को

दिखाऊँ यार के ज़ुल्फ़ाँ सूँ यक तार

न चाहे फिर कभी मुश्क-ए-ख़ुतन को

न था आदम अथा वो ज़ात-ए-मुतलक़

सुनाऊँ ये सदा अब तुझ किरन को

सदफ़ में नैन के दिखलाऊँ गौहर

न राखे आरज़ू दुर्र-ए-अदन को

नहीं गौहर वो हैं ज्यूँ चाँद और सूर

'अलीमुल्लाह' जहाँ के अंजुमन को

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