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कीता कहीं पुकार ऐ ग़ाफ़िल बिया बिया - अलीमुल्लाह कविता - Darsaal

कीता कहीं पुकार ऐ ग़ाफ़िल बिया बिया

कीता कहीं पुकार ऐ ग़ाफ़िल बिया बिया

फिरता है क्यूँ तू भूल अपस का पिया पिया

बूझा है क्यूँ अजल को अपस से बईद कर

ग़फ़लत में चुप उमर को तू ज़ाए किया किया

अब तो समझ टुक एक तिरा जान कौन है

पापा है जी को जिस ने मुआ नहिं जिया जिया

लेकिन नहीं है काम हर इक ख़ाम का यहाँ

आशिक़ वही हुआ है कि जो सर दिया दिया

पहुँचा है जो कि इश्क़ में मंज़िल को वस्ल की

बे-शक सकल जहाँ में हुआ बे-रिया रिया

जो कुइ क़दम को अपने रखा राह-ए-इश्क़ में

कहते हैं आशिक़ाँ की वो मंज़िल लिया लिया

दोनों जहाँ से काम नहीं मुझ को ऐ 'अलीम'

बस है मुझे करीम दिया सो हिया हिया

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