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इलाही बुलबुल-ए-गुलज़ार-मअनी कर लिसाँ मेरा - अलीमुल्लाह कविता - Darsaal

इलाही बुलबुल-ए-गुलज़ार-मअनी कर लिसाँ मेरा

इलाही बुलबुल-ए-गुलज़ार-मअनी कर लिसाँ मेरा

ब-रंग-ए-अब्र-ए-नैसानी सुख़न गौहर-फ़िशाँ मेरा

सुने पर होवें उश्शाक़ाँ ये मअनी रम्ज़ सूँ सरमस्त

ले जावें फ़ैज़ ग़व्वास-ए-हक़ीक़त हक़-रसाँ मेरा

लताफ़त गुलबुन-ए-हुस्न जहाँ-आरा समझ ऐ दिल

हुआ है ज़ुल्फ़ और रुख़्सार-ए-जानाँ आशियाँ मेरा

दिया है आब-ओ-ताब-ए-चश्म दाना ख़ाल-ए-आरिज़ का

कहो सब उस को अब क़ातिल है यारब दिलसिताँ मेरा

हुआ है मंज़र-ए-चश्म-ए-नज़र मंज़ूर-ए-उश्शाक़ाँ

दर-ओ-दीवार सूँ दिस्ता निशान-ए-बे-निशाँ मेरा

'अलीमुल्लाह' ख़मोश अब रम्ज़ असरार-ए-इलाही का

समझता है कहाँ हर शख़्स मस्ती का बयाँ मेरा

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