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हुस्न का देख हर तरफ़ गुलज़ार - अलीमुल्लाह कविता - Darsaal

हुस्न का देख हर तरफ़ गुलज़ार

हुस्न का देख हर तरफ़ गुलज़ार

अंदलीबाँ हुए हैं दिल-अफ़गार

इश्क़ की मय सूँ जो हुआ सरमस्त

दिल हुआ उस का ख़ाना-ए-ख़ु़म्मार

यार आया है जब मुआलिज हो

दर्द-ए-फ़ुर्क़त में नहिं रहा बीमार

आप आशिक़ है हुस्न पर अपने

है मिरे जान का अजब असरार

कहीं आशिक़ कहीं हुआ दिलबर

कहीं माशूक़ कीं हुआ दिलदार

कीं हुआ शम्स कीं हुआ है क़मर

कीं हुआ नूर कीं हुआ है नार

कीं हुआ अर्ज़ कीं हुआ है फ़लक

कीं हुआ बहर कीं हुआ अश्जार

कीं हुआ इंस कीं हुआ है मलक

कीं हुआ दीद कीं हुआ दीदार

कीं पयम्बर कहीं हुआ है वली

कीं हुआ शैख़ कीं हुआ ज़ुन्नार

कीं है क़ाज़ी कहीं हुआ मुफ़्ती

कीं हुआ मस्त कीं हुआ अबरार

कीं हुआ जान कीं हुआ जानाँ

सब में है और कहीं सभों से पार

हक़ में हक़ हो सदा अनल-हक़ बोल

देख मंसूर क्यूँ चढ़ा है दार

इक-पना ज़ात का 'अलीमुल्लाह'

शरअ बिन ग़ैर कुछ न कर तकरार

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