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दया साक़ी लबालब मुझ को साग़र - अलीमुल्लाह कविता - Darsaal

दया साक़ी लबालब मुझ को साग़र

दया साक़ी लबालब मुझ को साग़र

हुआ सारा कुदूरत दिल सूँ बाहर

अजब था मस्त साक़ी जाम तेरा

छुपा बातिन लगा दिस्ने को ज़ाहिर

अंधारा ग़ैर का जी सूँ गया टल

हुआ ख़ुर्शीद आ अँखियाँ में हाज़िर

दिया ज़र्रे को अपने महर सूँ नूर

हुआ तिस पर करम सूँ आप नाज़िर

लगा कर फ़ैज़ का मुझ जग में इंजन

किया है गंज सूँ बातिन के माहिर

तसद्दुक़ जान-ओ-दिल सूँ में सरापा

नवाज़िश है तिरी दो जग में नादिर

'अलीमुल्लाह' तिरा साक़ी सचा है

लक़ब जिस को 'मुहयुद्दीन-क़ादिर'

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