'बहरी' पछाने नीं उसे गुल के सो वो दम-साज़ थे
'बहरी' पछाने नीं उसे गुल के सो वो दम-साज़ थे
चंचल छबीले चुलबुले मग़रूर साहब-नाज़ थे
नीं ख़ूब देखे तुम उसे वो आशिक़ों का तख़्त था
मिस्ल-ए-सुलैमाँ बर-हवा दर-नीम-शब पर्वाज़ थे
क्या पारसा का पैरहन और तुझ गदा की गूदड़ी
मिल के सो अपने पाँव तल जिस्मानियाँ सूँ पाज़ थे
तअम्मुल के तुम को दूर से जो भूल गए अपना पिसर
वो गोश-ओ-अबरू खींच कर मिज़्गान तीर-अंदाज़ थे
नादिर 'अलीमुल्लाह' कहा ये शेर 'बहरी' का जवाब
उश्शाक़ दिलबर सूँ सदा ख़ुद हमदम-ओ-हमराज़ थे
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