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अक़्ल-ए-जुज़वी छोड़ कर ऐ यार फ़िक्र-ए-कुल करो - अलीमुल्लाह कविता - Darsaal

अक़्ल-ए-जुज़वी छोड़ कर ऐ यार फ़िक्र-ए-कुल करो

अक़्ल-ए-जुज़वी छोड़ कर ऐ यार फ़िक्र-ए-कुल करो

मिशअल-ए-दिल को चिता फ़ानी चराग़ाँ गुल करो

दिल लगाओ एक से दोनों जहाँ जिस का ज़ुहूर

बुल-हवस हो कर न हरगिज़ आदत-ए-बुलबुल करो

मैं मोहब्बत सूँ हमेशा इश्क़ में सरशार हूँ

नश्शा-ए-फ़ानी सूँ मत ख़ातिर को ख़ू-ए-मुल करो

ज़ुल्फ़-ओ-आरिज़ है मुनव्वर देख वज्हुल्लाह का

तुम न को सैर-ए-चमन और ख़्वाहिश-ए-सुम्बुल करो

क़ौल पर ला-तक़्नतू के रहो हमेशा जम्अ'-दिल

मत तुम्हें ख़ातिर परेशाँ सूरत-ए-काकुल करो

ख़ौफ़ मत रक्खो किसी दुश्मन से दिल में यक रती

पुश्त-बाँ अपना हमेशा साहब-ए-दुलदुल करो

ऐ 'अलीमुल्लाह' अव्वल इश्क़ में मिस्मार हो

आशिक़ों में बा'द अपने आशिक़ी का ग़ुल करो

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