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सदाओं के जंगल में वो ख़ामुशी है - अलीमुल्लाह हाली कविता - Darsaal

सदाओं के जंगल में वो ख़ामुशी है

सदाओं के जंगल में वो ख़ामुशी है

कि मैं ने हर आवाज़ तेरी सुनी है

उदासी के आँगन में तेरी तलब की

अजब ख़ुशनुमा इक कली खिल रही है

नया रंग था उस का कल वक़्त-ए-रुख़्सत

कि जैसे किसी बात पर बरहमी है

उसे दे के सब कुछ मैं ये सोचता हूँ

उसे और क्या दूँ अभी कुछ कमी है

वही लम्हा लम्हा लहकना अभी तक

अभी तक उसी याद की शोलगी है

सबीलें मिरे नाम की और भी हैं

मगर प्यास मुझ को तिरी बूँद की है

तिरा नाम लूँ सामने सब के 'हाली'

ये चाहत मिरे दिल को अब काटती है

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