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किस तरह जाऊँ कि ये आए हुए रात में हैं - अली ज़ुबैर कविता - Darsaal

किस तरह जाऊँ कि ये आए हुए रात में हैं

किस तरह जाऊँ कि ये आए हुए रात में हैं

ये अंधेरे नहीं हैं साए मिरी घात में हैं

मिलता रहता हूँ मैं उन से तो ये मिल लेते हैं

यार अब दिल में नहीं रहते मुलाक़ात में हैं

ये तो नाकाम असासा है समुंदर के पास

कुछ ग़ज़बनाक सी लहरें मिरे जज़्बात में हैं

ये धुएँ में जो नज़र आते हैं सरसब्ज़ यहाँ

ये मकाँ शहर में हो कर भी मज़ाफ़ात में हैं

दिल का छूना था कि जज़्बात हुए पत्थर के

ऐसा लगता है कि हम शहर-ए-तिलिस्मात में हैं

मैं ही तकरार हूँ और मैं ही मुकर्रर हूँ यहाँ

वक़्त पर चलते हुए दिन मिरी औक़ात में हैं

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