नफ़रत से मोहब्बत को सहारे भी मिले हैं
तूफ़ान के दामन में किनारे भी मिले हैं
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ताज़ा मंज़र
वरक़-ए-इंतिख़ाब दिल में है
वो तो था आदमी की तरह 'ज़हीर'
एक पलटता हुआ मंज़र
मैं बड़ी मुश्किल में हूँ
कसाफ़त
कान सुनते तो हैं लेकिन न समझने के लिए
मिरा ख़ून-ए-जिगर पुर-नूर बन जाए तो अच्छा हो
तुम से
किसे बताएँ कि क्या ग़म रहा है आँखों में
दिल ये कहता है कि इक आलम-ए-मुज़्तर देखूँ