मिरा ख़ून-ए-जिगर पुर-नूर बन जाए तो अच्छा हो
तुम्हारी माँग का सिन्दूर बन जाने तो अच्छा हो
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एक पलटता हुआ मंज़र
काला समुंदर
एक रात एक सुब्ह
वरक़-ए-इंतिख़ाब दिल में है
दर्द हर रंग से अतवार-ए-दुआ माँगे है
दिल ये कहता है कि इक आलम-ए-मुज़्तर देखूँ
राज़-ए-ग़म-ए-उल्फ़त को ये दुनिया न समझ ले
मैं बड़ी मुश्किल में हूँ
वो तो था आदमी की तरह 'ज़हीर'
किसे बताएँ कि क्या ग़म रहा है आँखों में
कान सुनते तो हैं लेकिन न समझने के लिए