ये कसाफ़तों की जो बुहतात है
इस से ख़ुद को
हम कहाँ तक बचाएँ
न तो साया-ए-गुम्बद
न खुले उजले सहन
एक बे-रंग सी
बे-रूह फ़ज़ा छाई है
सौत-ओ-आहंग नहीं
नोक-ए-सिनाँ उट्ठे हैं
अपनी आवाज़ को
मैं ख़ुद भी नहीं सुन सकता
Gulzar
Mir Taqi Mir
Mohsin Naqvi
Anwar Masood
Allama Iqbal
Habib Jalib
Javed Akhtar
Wasi Shah
Faiz Ahmad Faiz
Rahat Indori
Jaun Eliya
Ahmad Faraz
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एक रात एक सुब्ह
दर्द हर रंग से अतवार-ए-दुआ माँगे है
किसे बताएँ कि क्या ग़म रहा है आँखों में
कान सुनते तो हैं लेकिन न समझने के लिए
ताज़ा मंज़र
एक पलटता हुआ मंज़र
तीन मुख़्तसर नज़्में
नफ़रत से मोहब्बत को सहारे भी मिले हैं
वरक़-ए-इंतिख़ाब दिल में है
राज़-ए-ग़म-ए-उल्फ़त को ये दुनिया न समझ ले
तुम से
मिरा ख़ून-ए-जिगर पुर-नूर बन जाए तो अच्छा हो