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पूरी हुई जो हिज्र की मीआद आवेगा - अली यासिर कविता - Darsaal

पूरी हुई जो हिज्र की मीआद आवेगा

पूरी हुई जो हिज्र की मीआद आवेगा

क़ैद-ए-अना से हो के वो आज़ाद आवेगा

उस बुत से जी लगा न लगा क्या मुझे वले

फिर क्या करेगा जब वो तुझे याद आवेगा

मैं तो करूँ हूँ उम्र भर इक दश्त का सफ़र

क्या होगा जब वो क़र्या-ए-आबाद आवेगा

आवेगा इक से एक सुखनवर यहाँ मगर

कोई भी 'मीर' जैसा न उस्ताद आवेगा

मैं उस को देखता हूँ तो आता है ध्यान में

किस काम उस के ये दिल-ए-बर्बाद आवेगा

मैं जब कहा कि ग़म से तबीअ'त बहाल है

बोला वो रोज़-ए-हश्र ही तू शाद आवेगा

वाक़िफ़ नहीं हैं आबले सहरा की प्यास से

और सोचते हैं क़ैस पए-दाद आवेगा

बाज़ार-ए-हस्त-ओ-बूद में शीशागरी मिरी

कोह-ए-जुनूँ भी सर पे मुझे लाद आवेगा

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