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ऐ नीश-ए-इश्क़ तेरे ख़रीदार क्या हुए - अली वजदान कविता - Darsaal

ऐ नीश-ए-इश्क़ तेरे ख़रीदार क्या हुए

ऐ नीश-ए-इश्क़ तेरे ख़रीदार क्या हुए

थी जिन के दम से रौनक़-ए-बाज़ार क्या हुए

बोल ऐ हवा-ए-शाम वो बीमार क्या हुए

मोनिस तिरे रफ़ीक़ तिरे यार क्या हुए

ऐ जुर्म-ए-इश्क़ तेरे गुनहगार क्या हुए

ऐ दोस्त तेरे हिज्र के बीमार क्या हुए

रस्म-ए-वफ़ा का ज़िक्र तो अब ज़िक्र रह गया

वो पैकर-ए-वफ़ा वो वफ़ादार क्या हुए

ऐ कम-शनास वक़्त तुझे याद तक नहीं

वो ज़ख़्म-ए-जान-ओ-दिल के तलबगार क्या हुए

कार-ए-जुनूँ में जिन के हुए आम तज़्किरे

फ़स्ल-ए-जुनूँ बता वो ख़ुद-आज़ार क्या हुए

जोश-ओ-नदीम-ओ-फ़ैज़ भी बैठे हैं हार के

पहुँचे थे जो जुनूँ में सर-ए-दार क्या हुए

ज़िंदान-ए-तीरगी में मुक़य्यद हैं आज भी

पैदा हुए थे सुब्ह के आसार क्या हुए

'विज्दान' आशिक़ी में गँवानी थी जान भी

प्यारे वो तेरे तौर वो अतवार क्या हुए

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