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तुम्हारा शहर - अली सरदार जाफ़री कविता - Darsaal

तुम्हारा शहर

तुम्हारा शहर तुम्हारे बदन की ख़ुश्बू से

महक रहा था, हर इक बाम तुम से रौशन था

हवा तुम्हारी तरह हर रविश पे चलती थी

तुम्हारे होंटों से हँसती थीं नर्म-लब कलियाँ

अता हुई थी सहर को तुम्हारी सीम-तनी

मिली थी शाम ओ शफ़क़ को तुम्हारी गुल-बदनी

तुम्हारा नाम तसव्वुर भी था, तख़य्युल भी

यक़ीं भी, शौक़ भी, उम्मीद भी, तमन्ना भी

सजी थी ज़ुल्फ़-ए-जवाँ आरज़ू के फूलों से

उमीद-वार थे हर सम्त आशिक़ों के गिरोह

मगर ये क्या है कि हर कूचा आज वीराँ है

गली गली में हैं फ़ौलाद-पा सियह इफ़रीत

चमन चमन में सड़ी लाश का तअफ़्फ़ुन है

हवाएँ गर्म हैं बारूद का अंधेरा है

ख़बर नहीं कि यहाँ से किधर को जाना है

तुम्हारा शहर, तुम्हारे बदन की ख़ुश्बू को

तरस रहा है, हर इक बाम तीरा-सामाँ है

न रौशनी है, न निकहत, न नग़्मा है, न नवा

हर इक रविश पे हवा चल रही है नौहा-कुनाँ

सहर की गुल-बदनी है लहू का पैराहन

न शाम है न सहर सिर्फ़ इक सियाह कफ़न

तुम्हारे शहर की उर्यानियों को ढाँपता है

ख़बर नहीं कि यहाँ से किधर को जाना है

वो इक जुलूस सा इक मोड़ पर नज़र आया

कोई अज़ीम जनाज़ा गुज़रने वाला है

हवा में नाला-ओ-फ़रियाद की है कैफ़ियत

हर एक आँख में आँसू, हर एक होंट पे आह

दिलों का नौहा-ए-ग़म सिसकियों में ढलता है

वो दर्द है कि कोई खुल के रो नहीं सकता

मगर जनाज़ा कहीं भी नज़र नहीं आता

कफ़न-फ़रोश भी हैं, गोरकन भी हैं लेकिन

कोई बता नहीं सकता कि किस की मय्यत है

कोई बता नहीं सकता किधर गया ताबूत

कोई बता नहीं सकता कहाँ है क़ब्रिस्तान

चलो क़रीब से देखें ये बद-नसीब हैं कौन

क्लर्क हैं जो अभी दफ़्तरों से निकले हैं

तमाम एक सी शक्लें हैं हिंदिसों की तरह

किसान हैं जो अभी खेतियों से पलटे हैं

निकल के आए हैं मज़दूर कार-ख़ानों से

और उन की पुश्त पे अफ़्सुर्दा खोलीयों की क़तार

सुरों पे उड़ते धुएँ के सियाह-रंग अलम

बरहना बच्चों के रोने की दर्दनाक सदा

जुलूस-ए-ग़म है जनाज़ा ब-दोश चलता है

मगर जनाज़ा किधर है नज़र नहीं आता

ख़बर नहीं कि यहाँ से किधर को जाना है

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