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मेरे ख़्वाब - अली सरदार जाफ़री कविता - Darsaal

मेरे ख़्वाब

ऐ मिरे हसीं-ख़्वाबो

तुम कहाँ से आए हो

किस उफ़ुक़ से उभरे हो

किस शफ़क़ से निखरे हो

किन गुलों की सोहबत में

तुम ने तर्बियत पाई

किस जहाँ से लाए हो

ये जमाल-ओ-रानाई

जेल तो भयानक है

इस ज़लील दुनिया में

हुस्न का गुज़र कैसा

रंग है न निकहत है

नूर है न जल्वा है

जब्र की हुकूमत है

तुम कहाँ से आए हो

ऐ मिरे हसीं-ख़्वाबो

मैं ने तुम को देखा है

याद अब नहीं आता

शायद एक लड़की की

थरथराती पलकों में

जगमगाती आँखों में

या किसी तबस्सुम में

जो नहा के निकला हो

आँसुओं की शबनम से

इक हुमकते बच्चे की

मुट्ठियों के फूलों पर

तितलियों की यूरिश सी

और माँ की नज़रों में

सैकड़ों उमीदों के

शोख़ रंग गुल-दस्ते

मैं ने तुम को देखा है

नन्ही नन्ही गुड़ियों में

नाचते खिलौनों में

या रबर की गेंदों में

मैं ने तुम को देखा है

घुटनियों चले हो तुम

तोतली ज़बानों से

तुम ने दूध माँगा है

''एक शाहज़ादा था

एक शाहज़ादी थी''

इस हसीं कहानी पर

जाने कितने बच्चों ने

अपने सर उठाए हैं

जाने कितनी आँखों में

फूल मुस्कुराए हैं

और मैं समझता हूँ

तुम इसी कहानी की

सर-ज़मीं से आए हो

कुछ किसान कन्याएं

सब्ज़ ओ सुर्ख़ शीशों की

चूड़ियाँ कलाई में

और गलट की चाँदी की

हंसुलियों से गर्दन में

नीम चाँद के हल्क़े

चोलियों पे लहंगों पर

ज़र्द ज़र्द मिट्टी के

ज़र्द बेल-बूटे से

मैले मैले आँचल पर

बालियों के बोसे हैं

उन के हाथ में हंसिये

गीत गाने लगते हैं

झूम झूम कर पौदे

अपना सर झुकाते हैं

नौ-जवान लठयारे

खेत की मुंडेरों पर

प्रेम गीत गाते हैं

ऐ मिरे हसीं-ख़्वाबो

तुम इन्हें बहारों की

कोंपलों से फूटे हो

एक कार-ख़ाने में

चंद नौ-जवानों ने

अंजुमन बनाई है

और इस में लेनिन की

इक किताब पढ़ते हैं

सुन रही हैं दीवारें

हँस रही है तारीकी

नौ-जवान बैठे हैं

और किताब पढ़ते हैं

एक एक जुमले पर

चौंक चौंक पड़ते हैं

एक एक फ़िक़रे पर

अपना सर हिलाते हैं

गाह आह भरते हैं

गाह मुस्कुराते हैं

मैं ने उन के सीनों में

ऐ मिरे हसीं-ख़्वाबो

तुम को नाचते देखा

मैं ने तुम को देखा है

जब सियाह मेहराबें

आसमाँ पे बनती हैं

जब सुकूत की परियाँ

कहकशाँ पे चलती हैं

गेसुओं की निकहत से

जब हवा महकती हैं

जब फ़ज़ा चहकती है

मेरे गर्म होंटों पर

प्यार थरथराते हैं

और मेरी महबूबा

अपने रंग-ए-आरिज़ से

बिजलियाँ बनाती है

और मेरी नज़रों में

इक जहान मिटता है

इक जहान बनता है

इक ज़मीन हटती है

इक ज़मीन आती है

मैं असीर हूँ लेकिन

तुम को कोई भी क़ानून

क़ैद कर नहीं सकता

सर-बुलंद और आज़ाद

यूँ ही मुस्कुराए जाओ

मेरे दिल की दुनिया में

यूँ ही जगमगाए जाओ

क़ैद-ओ-बंद के जल्लाद

तुम को पा नहीं सकते

लम्बे लम्बे ज़ालिम हाथ

तुम को छू नहीं सकते

ऐ मिरे हसीं-ख़्वाबो

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