हसीन-तर
कल एक तू होगी और इक मैं
कोई रक़ीब-ए-रफ़ीक़-सूरत
कोई रफ़ीक़-ए-रक़ीब-सामाँ
मिरे तिरे दरमियाँ न होगा
हमारी उम्र-ए-रवाँ की शबनम
तिरी सियह काकुलों की रातों
में तार चाँदी के गूँध देगी
तिरे हसीं आरिज़ों के रंगीं
गुलाब बेले के फूल होंगे
शफ़क़ का हर रंग ग़र्क़ होगा
लतीफ़ ओ पुर-कैफ़ चाँदनी में
तिरी किताब-ए-रुख़-ए-जवाँ पर
कि जो ग़ज़ल की किताब है अब
ज़माना लिक्खेगा इक कहानी
और अन-गिनत झुर्रियों के अंदर
मिरी मोहब्बत के सारे बोसे
हज़ार लब बन के हँस पड़ेंगे
हम अपनी बीती हुई शबों की
सलोनी परछाइयों को ले कर
हम अपने अहद-ए-तरब की शाम ओ
सहर की रानाइयों को ले कर
पुरानी यादों के जिस्म-ए-उर्यां
के वास्ते पैरहन बुनेंगे
फिर एक तू होगी और इक मैं
कोई रक़ीब-ए-रफ़ीक़-सूरत
को रफ़ीक़-ए-रक़ीब-सामाँ
मिरे तिरे दरमियाँ न होगा
हवस की नज़रों को तेरे रुख़ पर
जमाल-ए-नौ का गुमाँ न होगा
फ़क़त मिरी हुस्न-ए-आज़मूदा
नज़र ये तुझ को बता सकेगी
कि तेरी पीरी का हुस्न तेरे
शबाब से भी हसीन-तर है
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