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बहुत क़रीब हो तुम - अली सरदार जाफ़री कविता - Darsaal

बहुत क़रीब हो तुम

बहुत क़रीब हो तुम फिर भी मुझ से कितनी दूर

कि दिल कहीं है नज़र है कहीं कहीं तुम हो

वो जिस को पी न सकी मेरी शोला-आशामी

वो कूज़ा-ए-शकर ओ जाम-ए-अम्बगीं तुम हो

मिरे मिज़ाज में आशुफ़्तगी सबा की है

मिली कली की अदा गुल की तमकनत तुम को

सबा की गोद में फिर भी सबा से बेगाना

तमाम हुस्न ओ हक़ीक़त तमाम अफ़्साना

वफ़ा भी जिस पे है नाज़ाँ वो बेवफ़ा तुम हो

जो खो गई है मिरे दिल की वो सदा तुम हो

बहुत क़रीब हो तुम फिर भी मुझ से कितनी दूर

हिजाब-ए-जिस्म अभी है हिजाब-ए-रूह अभी

अभी तो मंज़िल-ए-सद-मेहर-ओ-माह बाक़ी है

हिजाब-ए-फ़ासला-हा-ए-निगाह बाक़ी है

विसाल-ए-यार अभी तक है आरज़ू का फ़रेब

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