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शबों की ज़ुल्फ़ की रू-ए-सहर की ख़ैर मनाओ - अली सरदार जाफ़री कविता - Darsaal

शबों की ज़ुल्फ़ की रू-ए-सहर की ख़ैर मनाओ

शबों की ज़ुल्फ़ की रू-ए-सहर की ख़ैर मनाओ

निगार-ए-शम्स उरूस-ए-क़मर की ख़ैर मनाओ

सिपाह-ए-दुश्मन-ए-इंसानियत क़रीब आई

दयार-ए-हुस्न सर-ए-रहगुज़र की ख़ैर मनाओ

अभी तो औरों के दीवार-ओ-दर पे यूरिश थी

अब अपने साया-ए-दीवार-ओ-दर की ख़ैर मनाओ

चली है आतिश-ओ-आहन के दिल से बाद-ए-सुमूम

चमन के जल्वा-ए-गुलहा-ए-तर की ख़ैर मनाओ

गुज़र न जाए कहीं बहर-ओ-बर से ख़ून की धार

फ़रोग़-ए-शबनम-ओ-आब-ओ-गुहर की ख़ैर मनाओ

ये नफ़अ'-ख़ोरों की दानिश-फ़रोश दुनिया है

मता-ए-इल्म की जिंस-ए-हुनर की ख़ैर मनाओ

मिरे लिए है मिरी मुफ़लिसी-व-नापाकी

तुम अपनी पाकी-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र की ख़ैर मनाओ

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