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सर्द हैं दिल आतिश-ए-रू-ए-निगाराँ चाहिए - अली सरदार जाफ़री कविता - Darsaal

सर्द हैं दिल आतिश-ए-रू-ए-निगाराँ चाहिए

सर्द हैं दिल आतिश-ए-रू-ए-निगाराँ चाहिए

शो'ला-रंग-ए-बहार-ए-गुल-एज़ाराँ चाहिए

मंज़िल-ए-इश्क़-ओ-जुनूँ के फ़ासले हैं सर-ब-कफ़

इन कठिन राहों में लुत्फ़-ए-दस्त-ए-याराँ चाहिए

कट रही है और कट चुकती नहीं फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ

तेज़-तर इक और तेग़-ए-नौ-बहाराँ चाहिए

आज मय-ख़ाने में सेहर-ए-चश्म-ए-साक़ी के लिए

इल्तिफ़ात-ए-चश्म मस्त-ए-मय-गुसाराँ चाहिए

इस दिल-ए-वहशी की आज़ादी का क्या कीजे इलाज

इक कमंद-ए-गेसू-ए-यज़्दाँ-शिकाराँ चाहिए

नग़्मा बन जाता है नाला उन की बज़्म-ए-नाज़ में

उन को ख़ुश रखने को शोर-ए-सोगवाराँ चाहिए

आसमानों से बरसते हैं ज़मीं पर रेगज़ार

आज फिर 'सरदार' रक़्स-ए-बर्क़-ओ-बाराँ चाहिए

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