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नग़्मा-ए-ज़ंजीर है और शहर-ए-याराँ इन दिनों - अली सरदार जाफ़री कविता - Darsaal

नग़्मा-ए-ज़ंजीर है और शहर-ए-याराँ इन दिनों

नग़्मा-ए-ज़ंजीर है और शहर-ए-याराँ इन दिनों

है बहुत अहल-ए-जुनूँ शोर-ए-बहाराँ इन दिनों

उस वफ़ा-दुश्मन से पैमान-ए-वफ़ा है उस्तुवार

ज़ेर-ए-संग-ए-सख़्त है फिर दस्त-ए-याराँ इन दिनों

मोहतसिब भी हल्क़ा-ए-रिंदाँ का है उम्मीद-वार

कम न हो जाए वक़ार-ए-मय-गुसाराँ इन दिनों

तेज़ी-ए-तेग़-ए-अदा की शोहरतें हैं दूर दूर

है बहुत आबाद कू-ए-दिल-फ़िगाराँ इन दिनों

दोस्तो पैराहन-ए-जाँ ख़ून-ए-दिल से सुर्ख़-तर

बढ़ गया है इल्तिफ़ात-ए-गुल-एज़ाराँ इन दिनों

अहल-ए-दिल पर बारिश-ए-लुत्फ़-ए-निगाह-ए-दिल-नवाज़

मेहरबाँ है इश्क़ पर चश्म-ए-निगाराँ इन दिनों

है गदा-ए-मय-कदा के सर पे ताज-ए-ख़ुसरवी

कूज़ा-गर की गिल है ख़ाक-ए-शहर-ए-याराँ इन दिनों

क्या अजब इशरत-कदों पर बिजलियाँ गिरने लगीं

है बहुत सरकश निगाह-ए-सोगवाराँ इन दिनों

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