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मौसम-ए-रंग भी है फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ भी तारी - अली सरदार जाफ़री कविता - Darsaal

मौसम-ए-रंग भी है फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ भी तारी

मौसम-ए-रंग भी है फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ भी तारी

देखना ख़ून के धब्बे हैं कि है गुल-कारी

उस से हर तरह से तज़लील-ए-बशर होती है

बाइस-ए-फ़ख़्र नहीं मुफ़लिसी-ओ-नादारी

इंक़िलाबी हो तो है फ़क़्र भी तौक़ीर-ए-हयात

वर्ना है आजिज़ी-ओ-बे-कसी-ओ-अय्यारी

शो'ला-ए-गुल की बढ़ा देती है लौ-ए-बाद-ए-बहार

तह-ए-शबनम भी दहक उठती है इक चिंगारी

लम्हा लम्हा है कि है क़ाफ़िला-ए-मंज़िल-ए-नूर

सरहद-ए-शब में भी फ़रमान-ए-सहर है जारी

तेग़-ओ-ख़ंजर को अता करते हैं लफ़्ज़ों की नियाम

ज़ुल्म की करते हैं जब अहल-ए-सितम तय्यारी

हर्फ़-ए-'सरदार' में पोशीदा हैं असरार-ए-हयात

शेर-ए-'सरदार' में है सरकशी-ओ-सरशारी

शेर-ए-'सरदार' में है शो'ला-ए-बेबाक का रंग

हर्फ़-ए-'सरदार' में हक़-गोई-ओ-ख़ुश-गुफ़्तारी

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