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मस्ती-ए-रिंदाना हम सैराबी-ए-मय-ख़ाना हम - अली सरदार जाफ़री कविता - Darsaal

मस्ती-ए-रिंदाना हम सैराबी-ए-मय-ख़ाना हम

मस्ती-ए-रिंदाना हम सैराबी-ए-मय-ख़ाना हम

गर्दिश-ए-तक़दीर से हैं गर्दिश-ए-पैमाना हम

ख़ून-ए-दिल से चश्म-ए-तर तक चश्म-ए-तर से ता-ब-ख़ाक

कर गए आख़िर गुल-ओ-गुलज़ार हर वीराना हम

क्या बला जब्र-ए-असीरी है कि आज़ादी में भी

दोश पर अपने लिए फिरते हैं ज़िंदाँ-ख़ाना हम

राह में फ़ौजों के पहरे सर पे तलवारों की छाँव

आए हैं ज़िंदाँ में भी बा-शौकत-ए-शाहाना हम

मिटते मिटते दे गए हम ज़िंदगी को रंग-ओ-नूर

रफ़्ता रफ़्ता बन गए इस अहद का अफ़्साना हम

या जगा देते हैं ज़र्रों के दिलों में मय-कदे

या बना लेते हैं मेहर-ओ-माह को पैमाना हम

क़ैद हो कर और भी ज़िंदाँ में उड़ता है ख़याल

रक़्स ज़ंजीरों में भी करते हैं आज़ादाना हम

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