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हम जो महफ़िल में तिरी सीना-फ़िगार आते हैं - अली सरदार जाफ़री कविता - Darsaal

हम जो महफ़िल में तिरी सीना-फ़िगार आते हैं

हम जो महफ़िल में तिरी सीना-फ़िगार आते हैं

रंग-बर-दोश गुलिस्ताँ-ब-कनार आते हैं

चाक-दिल चाक-जिगर चाक-गरेबाँ वाले

मिस्ल-ए-गुल आते हैं मानिंद-ए-बहार आते हैं

कोई माशूक़ सज़ावार-ए-ग़ज़ल है शायद

हम ग़ज़ल ले के सू-ए-शहर-ए-निगार आते हैं

क्या वहाँ कोई दिल-ओ-जाँ का तलबगार नहीं

जा के हम कूचा-ए-क़ातिल में पुकार आते हैं

क़ाफ़िले शौक़ के रुकते नहीं दीवारों से

सैंकड़ों महबस-ओ-ज़िन्दाँ के दयार आते हैं

मंज़िलें दौड़ के रहरव के क़दम लेती हैं

बोसा-ए-पा के लिए राहगुज़ार आते हैं

ख़ुद कभी मौज-ओ-तलातुम से न निकले बाहर

पार जो सारे ज़माने को उतार आते हैं

कम हो क्यूँ अबरू-ए-क़ातिल की कमानों का खिंचाओ

जब सर-ए-तीर-ए-सितम आप शिकार आते हैं

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