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फ़रोग़-ए-दीदा-ओ-दिल लाला-ए-सहर की तरह - अली सरदार जाफ़री कविता - Darsaal

फ़रोग़-ए-दीदा-ओ-दिल लाला-ए-सहर की तरह

फ़रोग़-ए-दीदा-ओ-दिल लाला-ए-सहर की तरह

उजाला बिन के रहो शम-ए-रहगुज़र की तरह

पयम्बरों की तरह से जियो ज़माने में

पयाम-ए-शौक़ बनो दौलत-ए-हुनर की तरह

ये ज़िंदगी भी कोई ज़िंदगी है हम-नफ़सो

सितारा बन के जले बुझ गए शरर की तरह

डरा सकी न मुझे तीरगी ज़माने की

अँधेरी रात से गुज़रा हूँ मैं क़मर की तरह

समुंदरों के तलातुम ने मुझ को पाला है

चमक रहा हूँ इसी वास्ते गुहर की तरह

तमाम कोह ओ तल ओ बहर ओ बर हैं ज़ेर-ए-नगीं

खुला हुआ हूँ मैं शाहीं के बाल-ओ-पर की तरह

तमाम दौलत-ए-कौनैन है ख़िराज उस का

ये दिल नहीं किसी लूटे हुए नगर की तरह

गुज़र के ख़ार से ग़ुंचे से गुल से शबनम से

मैं शाख़-ए-वक़्त में आया हूँ इक समर की तरह

मैं दिल में तल्ख़ी-ए-ज़हराब-ए-ग़म भी रखता हूँ

न मिस्ल-ए-शहद हूँ शीरीं न मैं शकर की तरह

ख़िज़ाँ के दस्त-ए-सितम ने मुझे छुआ है मगर

तमाम शो'ला ओ शबनम हूँ काशमर की तरह

मिरी नवा में है लुत्फ़-ओ-सुरूर-ए-सुब्ह-ए-नशात

हर एक शेर है रिंदों की शाम-ए-तर की तरह

ये फ़ातेहाना ग़ज़ल अस्र-ए-नौ का है आहंग

बुलंद ओ पस्त को देखा है दीदा-वर की तरह

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