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ये क्या कि ख़ल्क़ को पूरा दिखाई देता हूँ - अली मुज़म्मिल कविता - Darsaal

ये क्या कि ख़ल्क़ को पूरा दिखाई देता हूँ

ये क्या कि ख़ल्क़ को पूरा दिखाई देता हूँ

मगर मैं ख़ुद को अधूरा सुझाई देता हूँ

अजल को जा के गरेबान से पकड़ लाए

मैं ज़िंदगी को वहाँ तक रसाई देता हूँ

मैं अपने जिस्म के सब मुनक़सिम हवालों को

ब-नाम-ए-रिज़्क़ सुख़न की कमाई देता हूँ

वो ज़िंदगी में मुझे फिर कभी नहीं मिलता

मैं अपने ख़्वाबों से जिस को रिहाई देता हूँ

मुझे सिला न सताइश न अद्ल है मतलूब

मैं अपने सामने अपनी सफ़ाई देता हूँ

ये शोर मेरा तख़ातुब नहीं सुनेगा 'अली'

मैं ख़ामुशी को मुकम्मल सुनाई देता हूँ

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