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मेरी इम्लाक समझ बे-सर-ओ-सामानी को - अली मुज़म्मिल कविता - Darsaal

मेरी इम्लाक समझ बे-सर-ओ-सामानी को

मेरी इम्लाक समझ बे-सर-ओ-सामानी को

एक मुद्दत से मैं लाहक़ हूँ परेशानी को

अब ये मा'मूल के ग़म मुझ को रुलाने से रहे

सानेहे चाहिएँ अश्कों की फ़रावानी को

लौट आएगी जो अफ़्लाक से फ़रियाद मिरी

कौन बख़्शेगा सनद मेरी सना-ख़्वानी को

पेश-ए-मंज़र भी वही था जो पस-ए-ज़ात रहा

ग़म की मीरास मिली आँख की हैरानी को

सीना सद-चाक करो दिल से न अग़राज़ करो

क़ैद रहने दो अभी दश्त में ज़िंदानी को

मौत भी देख के अंगुश्त-ब-दंदाँ है 'अली'

मरक़द-ए-ज़ीस्त से लिपटी हुई वीरानी को

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