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हस्ब-ए-मक़्सूद हो गया हूँ मैं - अली मुज़म्मिल कविता - Darsaal

हस्ब-ए-मक़्सूद हो गया हूँ मैं

हस्ब-ए-मक़्सूद हो गया हूँ मैं

राख का दूद हो गया हूँ मैं

एक कमरे तलक बसीरत है

कितना महदूद हो गया हूँ मैं

नाम पहले बराए-नाम तो था

अब तो मफ़क़ूद हो गया हूँ मैं

यूँ खिंचे मुफ़्लिसी में सब रिश्ते

जैसे मरदूद हो गया हूँ मैं

मंफ़अत बाँटता रहा कल तक

आज बे-सूद हो गया हूँ मैं

शहर रद्द-ओ-क़ुबूल में आ कर

बूद-ओ-नाबूद हो गया हूँ मैं

उम्र की ना-रसा मसाफ़त में

गर्द-आलूद हो गया हूँ मैं

हुज़्न की यास की वदीअ'त पर

ऐन मसऊद हो गया हूँ मैं

बाब-ए-शहर-ए-सुख़न हुआ था 'अली'

नुत्क़-ए-मसदूद हो गया हूँ मैं

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