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दर-ए-शही से दर-ए-गदाई पे आ गया हूँ - अली मुज़म्मिल कविता - Darsaal

दर-ए-शही से दर-ए-गदाई पे आ गया हूँ

दर-ए-शही से दर-ए-गदाई पे आ गया हूँ

मैं नर्म बिस्तर से चारपाई पे आ गया हूँ

बदन की सारी तमाज़तें माँद पड़ रही हैं

वो बेबसी है कि पारसाई पे आ गया हूँ

नहीं है चेहरे का हाल पढ़ने की ख़ू किसी में

सुकूत तोड़ा है लब-कुशाई पे आ गया हूँ

हुसूल-ए-गंज-ए-अता-ए-ग़ैबी के वास्ते अब

सिफ़ात-ए-रब्बी की जुब्बा-साई पे आ गया हूँ

उतार फेंका मुसालहत का लिबास मैं ने

सुकूत तोड़ा है लब-कुशाई पे आ गया हूँ

फ़ुतूर मुझ में नहीं है कोई सबब तो होगा

दुआएँ देता हुआ दुहाई पे आ गया हूँ

'अली' में सब्ज़े को रौंदने की सज़ा के बाइ'स

बरहना-सर से बरहना-पाई पे आ गया हूँ

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