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डोल्फ़िन - अली मोहम्मद फ़र्शी कविता - Darsaal

डोल्फ़िन

चलो अब समेटो खिलौने

किताबें निकालो

ये क्या ढेर तुम ने लगाया हुआ है फटे काग़ज़ों का

उधेड़ी हुई डोल्फ़िन माँ ने देखी तो कूटेगी

आँसू बहाते हुए तुम

मिरे पास आओगे

लेकिन मैं सहमी हुई

माँ की अँगारा-आँखों से आँखें चुराऊँगी

मिट्टी कुरेदूँगी पाँव के नाख़ुन से

हाथों के नाख़ुन कतरते हुए अपने दाँतों से

मैं ने कई बार देखा है तुम

उस की झोली में छुप कर मिरा मुँह चढ़ाते हो

चोरी किए उस के पैसों का इमचोर खाते हो

पानी टपकता है होंटों से मेरे

तो माँ डाँटती है

दुपट्टा उड़ाती है

जाने वो क्या बड़बड़ाती है

कलमोही कहती है किस को

मुझे उस ने अब तक बताया नहीं है

कि खट्टी ज़बानों पे शीरीनी रक्खो तो

उबकाई मछली की मानिंद बाहर लपकती है क्यूँ

ख़ैर छोड़ो मुझे

तुम फटी डोल्फ़िन सँभालो!

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