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ऐन - अली मोहम्मद फ़र्शी कविता - Darsaal

ऐन

दूसरा कौन है

कौन है साथ मेरे

अंधेरे में जिस का वजूद

अपने होने के एहसास की लौ तेज़ रखते हुए

मेरे सहमे हुए साँस की रास थामे हुए चल रहा है

दिया एक उम्मीद का जल रहा है

कहीं आबशारों के पीछे

घनी नींद जैसे अंधेरों में

सहरा की ला-सम्त पहनाई में

पाँव धँसते हुए

साँस रुक रुक के चलते हुए

कितना बोझल है वो

जिस को सहरा की इक सम्त से दूसरी सम्त में

ले के जाने पे मामूर हूँ

मैं रुकूँ तो ज़माँ गर्दिशें रोक कर बैठ जाए

आसमाँ थक के सहरा के बिस्तर पे चित गिर पड़े

चल रहा हूँ

बहुत धीमे धीमे

क़सम

छे दिनों की

मुसलसल चलूँगा

मैं बुर्राक़ से क्या जलूँगा

बस इक सोच में धँस गया था

कि ये दूसरा कौन है

कोई हारून है

या कि हारूत है

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