लज़्ज़त-ए-दर्द मिली इशरत-ए-एहसास मिली
कौन कहता है हम उस बज़्म से नाकाम आए
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तय कर चुके ये ज़िंदगी-ए-जावेदाँ से हम
आँखों में अश्क भर के मुझ से नज़र मिला के
नज़्ज़ारा-ए-जमाल की फ़ुर्सत कहाँ मिली
नींद आ गई थी मंज़िल-ए-इरफ़ाँ से गुज़र के
जुनूँ से राह-ए-ख़िरद में भी काम लेना था
शिकवे हम अपनी ज़बाँ पर कभी लाए तो नहीं
मोनिस-ए-शब रफ़ीक़-ए-तन्हाई
अब दर्द में वो कैफ़ियत-ए-दर्द नहीं है
हम अहल-ए-दिल ने मेयार-ए-मोहब्बत भी बदल डाले
तिरे दयार में कोई ग़म-आश्ना तो नहीं
एक तुम्हारी याद ने लाख दिए जलाए हैं
ग़ैर पूछें भी तो हम क्या अपना अफ़्साना कहें