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नींद आ गई थी मंज़िल-ए-इरफ़ाँ से गुज़र के - अली जव्वाद ज़ैदी कविता - Darsaal

नींद आ गई थी मंज़िल-ए-इरफ़ाँ से गुज़र के

नींद आ गई थी मंज़िल-ए-इरफ़ाँ से गुज़र के

चौंके हैं हम अब सरहद-ए-इसयाँ से गुज़र के

आँखों में लिए जल्वा-ए-नैरंग-ए-तमाशा

आई है ख़िज़ाँ जश्न-ए-बहाराँ से गुज़र के

यादों के जवाँ क़ाफ़िले आते ही रहेंगे

सरमा के इसी बर्ग-ए-पुर-अफ़्शाँ से गुज़र के

काँटों को भी अब बाद-ए-सबा छेड़ रही है

फूलों के हसीं चाक गरेबाँ से गुज़र के

वहशत की नई राहगुज़र ढूँढ रहे हैं

हम अहल-ए-जुनूँ दश्त ओ बयाबाँ से गुज़र के

बन जाएगा तारा किसी मायूस ख़ला में

ये अश्क-ए-सहर गोशा-ए-दामाँ से गुज़र के

आवारगी-ए-फ़िक्र किधर ले के चली है

सर-मंज़िल-ए-आज़ादी-ए-इंसान से गुज़र के

पाई है निगाहों ने तिरी बज़्म-ए-तमन्ना

रातों को चिनारों के चराग़ाँ से गुज़र के

इक गर्दिश-ए-चश्म-ए-करम इक मौज-ए-नज़ारा

कल शब को मिली गर्दिश-ए-दौराँ से गुज़र के

मिलने को तो मिल जाए मगर लेगा भला कौन

साहिल का सुकूँ शोरिश-ए-तूफ़ाँ से गुज़र के

इक निश्तर-ए-ग़म और सही ऐ ग़म-ए-मंज़िल

आ देख तो इक रोज़ रग-ए-जाँ से गुज़र के

अब दर्द में वो कैफ़ियत-ए-दर्द नहीं है

आया हूँ जो उस बज़्म-ए-गुल-अफ़्शाँ से गुज़र के

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