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ऐश ही ऐश है न सब ग़म है - अली जव्वाद ज़ैदी कविता - Darsaal

ऐश ही ऐश है न सब ग़म है

ऐश ही ऐश है न सब ग़म है

ज़िंदगी इक हसीन संगम है

जाम में है जो मिशअल-ए-गुल-रंग

तेरी आँखों का अक्स-ए-मुबहम है

ऐ ग़म-ए-दहर के गिरफ़्तारो

ऐश भी सरनविश्त-ए-आदम है

नोक-ए-मिज़्गाँ पे याद का आँसू

मौसम-ए-गुल की सर्द शबनम है

दर्द-ए-दिल में कमी हुई है कहीं

तुम ने पूछा तो कह दिया कम है

मिटती जाती है बनती जाती है

ज़िंदगी का अजीब आलम है

इक ज़रा मुस्कुरा के भी देखें

ग़म तो ये रोज़ रोज़ का ग़म है

पूछने वाले शुक्रिया तेरा

दर्द तो अब भी है मगर कम है

कह रहा था मैं अपना अफ़्साना

क्यूँ तिरा दामन-ए-मिज़ा नम है

ग़म की तारीकियों में ऐ 'ज़ैदी'

रौशनी वो भी है जो मद्धम है

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