फ़रेब-ए-जल्वा कहाँ तक ब-रू-ए-कार रहे
नक़ाब उठाओ कि कुछ दिन ज़रा बहार रहे
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गुफ़्तुगू-ए-सूरत-ओ-म'अनी है उनवान-ए-हयात
तुम ने हर ज़र्रे में बरपा कर दिया तूफ़ान-ए-शौक़
मुझी को पर्दा-ए-हस्ती में दे रहा है फ़रेब
हरीम-ए-काबा बना दी वो सर-ज़मीं मैं ने
हरीम-ए-का'बा बना दी वो सर-ज़मीं मैं ने
ज़िंदगी क्या है जो दिल हो तश्ना-ए-ज़ौक़-ए-वफ़ा
चटक में ग़ुंचे की वो सौत-ए-जाँ-फ़ज़ा तो नहीं
दिल की आरज़ू थी दर्द दर्द-ए-बे-दवा पाया