ज़र्द फूलों में बसा ख़्वाब में रहने वाला
धुँद में उलझा रहा नींद में चलने वाला
Gulzar
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कसे कजावे महमिलों के और जागा रात का तारा भी
बस्तियों वाले तो ख़ुद ओढ़ के पत्ते, सोए
लुहार जानता नहीं
क़ैद-ख़ाने की हवा में शोर है आलाम का
हरीम-ए-दिल, कि सर-ब-सर जो रौशनी से भर गया
मुख़्तसर बात थी, फैली क्यूँ सबा की मानिंद
हवा के तख़्त पर अगर तमाम उम्र तू रहा
वो शख़्स अमर है, जो पीवेगा दो चाँदों के नूर
कोई न रस्ता नाप सका है, रेत पे चलने वालों का
फ़ाख़ताएँ बोलती हैं बाजरों के देस में