किसी का साया रह गया गली के ऐन मोड़ पर
उसी हबीब साए से बनी हमारी दास्ताँ
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हवा के तख़्त पर अगर तमाम उम्र तू रहा
बे-यक़ीन बस्तियाँ
बस्तियों वाले तो ख़ुद ओढ़ के पत्ते, सोए
क़ैद-ख़ाने की हवा में शोर है आलाम का
रह-ज़नी ख़ूब नहीं ख़्वाजा-सराओं के लिए
कसे कजावे महमिलों के और जागा रात का तारा भी
इतना आसाँ नहीं पानी से शबीहें धोना
सर्द रातों की हवा में उड़ते पत्तों के मसील
उठेंगे मौत से पहले
बाद-ए-सहरा को रह-ए-शहर पे डाला किस ने
दिन का समय है, चौक कुएँ का और बाँकों के जाल
वो शख़्स अमर है, जो पीवेगा दो चाँदों के नूर