आसमाँ के रौज़नों से लौट आता था कभी
वो कबूतर इक हवेली के छजों में खो गया
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इतना आसाँ नहीं पानी से शबीहें धोना
उठेंगे मौत से पहले
अज़ल के क़िस्सा-गो ने दिल की जो उतारी दास्ताँ
नौहा
घंटियाँ बजने से पहले शाम होने के क़रीब
चरवाहे का जवाब
बे-यक़ीन बस्तियाँ
किसी का साया रह गया गली के ऐन मोड़ पर
दिन का समय है, चौक कुएँ का और बाँकों के जाल
लुहार जानता नहीं
धूप फैली तो कहा दीवार ने झुक कर मुझे